Tuesday, December 22, 2015

(एक दशक पुराना) रोग

*हेवी मेटल ग्राउलिंग अंदाज़*

मन प्रदीप्त था, ह्रदय उद्दीप्त था
ना सकता था किसी से हार
(हा-आआआ-र)
मानो जीवन में आ बरसी
चंचल अप्रतिम अमूर्त बहार
(बहा-आआआ-र)
प्रेम व्याधि थे उसे कहते
करती वो सबको अशांत
बन गए थे सब रोगी उसके
कुत्सित, मलिन दीन और क्लांत
(क्ला-आआआ-न्त)

क्यूंकि है ये एक रोग
मात्र एक रोग
जीवन में भर देगा ये
अवसाद व शोक
है ये एक रोग
मात्र एक रोग
भोग है ये भोग
भोग मात्र भोग

(आआआ...
आआआ...
आआआ...)

निद्रा से जब जागेगा
पायेगा नया विकार
(विका-आआआ-र)
छलेंगे तुझको नित्यप्रति
कष्टों के नए प्रकार
(प्रका-आआआ-र)
फाड़ दे चादर तन्द्रा की
तू बन रहा प्रकृति का शिकार
हाँ खोल दे आँखें निद्रा की
और ले ये सुन्दर दृश्य निहार
(निहा-आआआ-र)

क्यूंकि है ये एक रोग
मात्र एक रोग
जीवन में भर देगा ये
अवसाद व शोक
है ये एक रोग
मात्र एक रोग
भोग है ये भोग
भोग मात्र भोग

(आआआ...
आआआ...
आआआ...)

*कुछ रैप-नुमा, फेथ नो मोर के माफ़िक*

प्रकृति रचित सुन्दर ये पाश
ढक ले ज्ञानोदीप्त प्रकाश
मूढ़ता बंधन में विवश हो
बनते हम काल के ग्रास

ज्ञानी होने पर क्यों विवश हैं?
होकर एकाकार पृथक हैं
इंद्रजाल मायानगरी का
वास्तव में सब अलग थलग हैं

हाँ हाँ हम सब दिखला देंगे
अब तो सब सतर्क सजग है
ब्रह्मज्ञान से प्रतिभासित
शिरोमणि मुकुट जगमग है

(आआआ...
आआआ...
आआआ...)

क्यूंकि है ये एक रोग
मात्र एक रोग
जीवन में भर देगा ये
अवसाद व शोक
है ये एक रोग
मात्र एक रोग
भोग है ये भोग
भोग मात्र भोग

(आआआ...
आआआ...
आआआ...)

...

सौजन्य से: कांसेप्ट बैण्ड, ब्रह्मास्मि

2 comments:

ankurpandey said...

hahaha!

I remembered most of the lyrics, except the rap. When did you write it?

Nanga Fakir said...

It's the original. Exactly the same as before. We never got around to the rap discussion :P